पौधरोपण और दुरी
पौध लगाने से पहले खेत की अच्छी तरह तैयारी करके खेत को समतल कर लेना चाहिए, ताकि पानी न भर सकें| फिर पपीता की सघन व्यावसायिक बागवानी के लिए 50 X 50 X 50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढ़े 1.5 X 1.5 मीटर के फासले पर खोद लेने चाहिए ओर प्रत्येक गड्ढे में 30 ग्राम बी एच सी 10 प्रतिशत डस्ट मिलाकर उपचारित कर लेना चाहिए| उंची बढ़ने वाली किस्मों के लिये 1.8 X 1.8 मीटर फासला रखते हैं| जब पौधे 20 से 25 सेंटीमीटर हो जायें तो पहले से तैयार किये पौधों को 2 से 3 की संख्या में प्रत्येक गड्ढ़े में 10 सेंटीमीटर के फासले पर लगा देते हैं|
पौधे लगाते समय इस बात का ध्यान रखते हैं, कि गड्ढ़े का ढाल पौधे की तरफ हो, पौधे लगाने के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए| पपीता लगाने का उचित समय अप्रैल, अगस्त और सितम्बर है| फूल आने के बाद केवल दस प्रतिशत नर पौधों को छोड़ कर सभी नर पौधों को निकाल देना चाहिए और उनकी जगह नये पौधे लगा दें| बरसात के दिनों में पेड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए, जिससे पानी तने से न लगे|
खाद एवं उर्वरक
पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है, इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरूरत है| अतः अच्छी फसल के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फास्फोरस और 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधा की आवश्यकता होती है| इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष पौधा 15 से 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद, 1 किलोग्राम हड्डी का चूरा तथा 1 किलोग्राम नीम की खली की जरूरत पड़ती है|
खाद की यह मात्रा तीन बराबर मात्रा में मार्च से अप्रेल, जुलाई से अगस्त और अक्टूबर महीनों में देनी चाहिए| दिसम्बर से जनवरी माह में उर्वरक नहीं डालना चाहिए, क्योंकि तापमान उत्तर भारत में इस समय काफी कम होता है और जाड़े में पौधों की वृद्धि रुक जाती है| पपीता लगाने के 4 माह बाद से उर्वरक डालने की आवश्यकता होती है|
सिंचाई प्रबंधन
पपीते के पौधे पानी के जमाव के प्रति संवेदनशील होते हैं| अतः इन्हें ऐसी भूमि में लगाना चाहिए जहाँ पानी के निकास का उत्तम प्रबंध हो खास तौर पर जहाँ अधिक वर्षा होती है और भारी मिट्टी है, वहाँ का विशेष ध्यान रखना चाहिए| पपीते के पौधों में समय-समय पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है| पानी की कमी होने पर उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है| यदि ठीक समय पर सिंचाई न कीजाये तो पौधे की वृद्धि रुक जाती है| जलवायु के अनुसार नये पौधों में 2 से 3 दिनों के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए, जबकि एक साल पुराने पौधों में गर्मी में 6 से 7 दिनों के अन्तराल पर तथा सर्दी में 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए (जब वर्षा न हो)|
पपीते के खेत में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए और पौधे की जड़ के पास 15 से 20 सेंटीमीटर ऊँची मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए, ताकि सिंचाई या वर्षा का पानी तने के सम्पर्क में न आये| 60 से 80 प्रतिशत तक ज़मीन में उपलब्ध मृदा नमी सिंचाई के लिए उपयुक्त पायी गयी हैं| यदि लम्बे समय तक पपीते के पौधे को पानी न मिले तो पौधे की वृद्धि एवं विकास रुक जाता है|
पाले से पौधों की रक्षा
सर्दी में छोटे पौधों की पाले से रक्षा करना आवश्यक होता है| इसके लिए छोटे पौधों को नवम्बर में तीन तरफ से घास-फूस या सरपत से अच्छी प्रकार ढक देते हैं| पूर्व-दक्षिण दिशा में पौधा खुला छोड़ दिया जाता है| जिससे सूर्य का प्रकाश पौधों को मिलता रहे| पाले की संभावना होने पर पौधों की सिंचाई करें और धुआ करने से भी पाले का भी प्रकोप कम होता है| फरवरी के अन्त में जब पाले का डर नहीं रहता, उस समय घास-फूस को हटा देना चाहिए|
निराई-गुड़ाई
पपीते का बाग साफ-सुथरा होना चाहिए| इसमें किसी प्रकार का खरपतवार नहीं होना चाहिए| प्रत्येक सिंचाई के बाद पौधे के चारों तरफ हल्की गुड़ाई अवश्य करनी चाहिए| पौधे के आस-पास गहरी गुड़ाई या जुताई नहीं करनी चाहिए| गहरी गुड़ाई करने से खुराक लेने वाली जड़े कट जाती हैं| पपीते के पौधे के 3 से 4 फिट तक के क्षेत्र में खरपतवार नियंत्रण आवश्यक होता है| जैविक पलवार के प्रयोग से खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है और मिट्टी में नमी भी अधिक समय तक सुरक्षित रखी जा सकती है| खरपतवार नियंत्रण द्वारा कीड़े-मकोड़ों से भी फसल की रक्षा हो जाती है एवं विषाणु रोग से भी बचाव होता है|
अन्तरवर्तीय फसलें
पपीते के पौधे के मध्य में प्रथम वर्ष में कम बढ़ने वाली सब्जियों जैसे फूलगोभी,पत्तागोभी प्याज, लहसुन आदि की खेती की जा सकती है|
विरलन
यदि पपीते में अधिक संख्या में फल लगते है, तो फल की अच्छी बढ़वार नहीं हो पाती है| कुछ फलों का आकार बहुत छोटा व कुरुप हो जाता है तथा कुछ अपने आप गिर जाते है| अतः अधिक पास पास लगे फलों को प्रारंभिक अवस्था में तोड़ देना चाहिए| जिससे बचे फल बड़े आकार के उच्च गुणवत्ता युक्त प्राप्त होते हैं|
अलाभकारी पौधों को हटाना
पपीते के पौधे लगाने के 28 से 30 माह बाद उसकी वृद्धि कम हो जाती है और जो फल लगते हैं| वे आकार में छोटे होते हैं| ऐसी अवस्था में पौधों को काट कर हटा देना चाहिए एवं नये पौधों का रोपण करना चाहिए|
कीट एवं नियंत्रण
सफेद मक्खी- यह कीट पपीते की पत्तियों का रस चूसकर हानि पहुँचाता है तथा विषाणु रोग फैलाने में भी सहायक होता है|
नियंत्रण- इसकी रोकथाम हेतु इमिडाक्लोरोप्रिड 17.8 एस एल दवा की 100 से 120 मिलीलीटर प्रति हैक्टेयर की दर से अथवा थायोमिथाकजॉम 25 डब्ल्यू जी दवा की 100 ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए|
लाल मकडी- यह कीट पपीते के पके फलो व पतियों की सतह पर पाया जाता हैं| इस कीट में प्रभावित पत्तियों पीली व फल काले रंग के हो जाते है|
नियंत्रण- इसकी रोकथाम हेतु डायमिथोएट 30 ई सी 800 से 1000 मिलीलीटर का प्रति हैक्टेयर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए|
रोग एवं नियंत्रण
तना व पौध गलन- यह रोग किसी भी उम्र के पौधों को संक्रमित कर नष्ट कर सकता है| प्रभावित पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ने लगती है और पौधा मुरझाकर गिर जाता है| तने के छिलके पर भी गीले से चकत्ते दिखाई देते हैं तथा पौधे की जड़े सड़ने लगती हैं|
नियंत्रण- बुवाई पूर्व बीजों को कार्बेन्डाजिम 2 से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए| खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखने पर कार्बेन्डाजिम मेनकोजेब की 750 ग्राम मात्रा का प्रति हैक्टयर की दर से छिड़काव करें|
फल तोड़ना
पपीते के फल की यदि सही समय से एवं सही ढंग से तुड़ाई न की गई तो अच्छी कीमत नहीं मिल पाती है, क्योंकि पपीता एक जल्दी खराब होने वाला फल है| फल को पेड़ पर तभी तक रखते हैं, जब तक कि फल परिपक्व न हो जाय| किन्तु पेड़ पर फल अधिक पका हुआ नहीं छोड़ते हैं| पकने पर कुछ प्रजातियों के फल पीले रंग के हो जाते हैं और कुछ प्रजातियाँ पकने पर भी हरी ही रहती हैं| फल की ऊपरी सतह पर हल्की खरोंच लगने से यदि पानी या दूध जैसा तरल पदार्थ न निकले तो समझना चाहिए कि फल परिपक्व हो गया है|
पपीते का पौधा लगाने के 6 से 7 माह बाद फूलना व फलना प्रारम्भ कर देता है| फल पौध लगाने के 10 से 11 माह बाद तोड़ने योग्य हो जाते हैं| फल तोड़ते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उन पर किसी तरह की खरोंच या दाग-धब्बे न पड़े अन्यथा उन पर कवकों का प्रकोप हो जायेगा| इससे फल सड़ जाते हैं|